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इंतज़ार की जीत

 इंतज़ार की जीत 🏡 शुरुआत: गाँव की वो लड़की श्रुति, एक छोटे से गांव की होनहार और तेज़ लड़की थी। पढ़ाई में अव्वल, संस्कारों में गहरी और सपनों में ऊंची। उसके पापा किसान थे और मां गांव के स्कूल में सहायिका। उसे सिर्फ एक ही सपना था—"मैं अफसर बनूंगी, ताकि कोई लड़की ये न सुने कि पढ़ाई से कुछ नहीं होता।" गांव में उसका दोस्त था आरव—कम बोलने वाला, लेकिन आंखों में गहराई लिए एक सीधा-सादा लड़का। दोनों की दोस्ती स्कूल से शुरू हुई, लेकिन कॉलेज के पहले ही दिन आरव ने उससे कह दिया, > “अगर तू किसी दिन अफसर बन गई ना, मैं सबसे पहले तुझसे मिलने आऊंगा… एक गुलाब लेकर।” श्रुति हंस दी थी, “पहले खुद कुछ बन जा, फिर फूल लाना!” 🚶‍♂️ जुदाई और संघर्ष कॉलेज के बाद रास्ते अलग हो गए। श्रुति ने UPSC की तैयारी शुरू की। दिल्ली के एक छोटे से पीजी में, गरीबी और अकेलेपन के बीच उसने खुद को किताबों में झोंक दिया। कई बार भूखी सोई, कई बार रिजल्ट ने तोड़ दिया। लेकिन उसने हार नहीं मानी। दूसरी तरफ आरव ने खेती में पिता का साथ दिया, फिर गांव में एक छोटा कोचिंग सेंटर खोला। उसके पास पैसे नहीं थे, लेकिन वो हर महीने श्रुति ...

दीये की लौ

 कहानी: दीये की लौ  छोटे से गाँव सूरजपुर में एक बालक रहता था – आदित्य। नाम ही उसका पहचान था – सूर्य के समान तेजस्वी। लेकिन उसका जीवन किसी उजाले से भरा नहीं था। गरीबी, अभाव, और संघर्ष उसके बचपन के साथी थे। उसके पिता एक साधारण किसान थे, जो दिन-रात मेहनत करके दो वक्त की रोटी जुटाते थे। गाँव में ना अच्छी पढ़ाई थी, ना किताबें, और ना ही बिजली। पर आदित्य के अंदर एक आग थी – कुछ कर दिखाने की, कुछ बड़ा बनने की। उसकी आँखों में एक सपना था – इंजीनियर बनकर एक दिन अपने गाँव को दुनिया के नक्शे पर लाना। अंधेरे में जलता एक दीया हर रात, जब पूरा गाँव सो जाता, आदित्य एक पुराना मिट्टी का दीया जलाता और पढ़ाई में लग जाता। दीया उसकी दुनिया का इकलौता उजाला था। उसकी माँ कहती, "बेटा, ज्यादा पढ़ेगा तो आंखें कमजोर हो जाएंगी।" लेकिन आदित्य मुस्कराता और कहता, "अंधेरे में लौ और सपनों में विश्वास काफी होता है, माँ।" गाँव के लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे। कोई कहता – “गाँव का छोरा इंजीनियर बनेगा? पहले खेत में हल तो चला ले!” लेकिन आदित्य चुपचाप मेहनत करता रहा। उसने मजाकों को आलोचना नहीं, बल्कि प्रेरणा की तर...

कहानी : एक जोड़ी चप्पल

  एक जोड़ी चप्पल गाँव का एक सीधा-सादा लड़का था अर्जुन। रोज़ नंगे पाँव स्कूल जाता, कभी खेतों में काम करता, कभी माँ के लिए कुएं से पानी भरता। उसके पास सिर्फ़ एक जोड़ी टूटी हुई चप्पल थी — एक पट्टी गायब, दूसरी जगह- जगह से फटी हुई। बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते, लेकिन वो चुपचाप मुस्कुराता और कहता, “मैं तो पैर के नीचे धरती महसूस करता हूँ, तुम लोग क्या जानो ज़मीन से जुड़ने का सुख।” एक दिन स्कूल में प्रतियोगिता हुई — भाषण प्रतियोगिता। सबने अच्छे कपड़े पहने, जूते चमकाए, और अर्जुन आया उसी अपनी टूटी चप्पल में। पर जब मंच पर खड़ा हुआ, तो जो बोला — उसने सबको चुप कर दिया: “मेरे पास नए कपड़े नहीं हैं, नई चप्पल नहीं है। लेकिन मेरे पास सपना है — एक ऐसा सपना जो मेरे पैरों से नहीं, मेरे हौसले से चलता है। जब तक ये सपना ज़िंदा है, तब तक मेरी चप्पल नहीं, मेरी मेहनत मेरी पहचान बनेगी।” पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। अर्जुन ने उस दिन पहला इनाम जीता — और कुछ सालों बाद, वही लड़का गाँव का पहला कलेक्टर बना। सीख: कपड़े, जूते, चप्पल नहीं बताते कि आप कौन हैं — आपकी सोच, आपके शब्द, और आपका सपना बताता है। अगर हालात साथ नहीं...

एक और जीत

एक और जीत राजस्थान के एक छोटे से गाँव में आर्यन नाम का एक लड़का रहता था। उसका सपना था कि वह एक दिन बड़ा क्रिकेटर बने और भारत का नाम रोशन करे। लेकिन उसके पास न तो अच्छा बल्ला था, न ही मैदान, और न ही कोई कोच। बस था तो एक सपना, और उसे पूरा करने की ज़िद। आर्यन हर सुबह सूरज उगने से पहले उठता, खेतों में पिता की मदद करता और फिर खाली मैदान में अकेले क्रिकेट की प्रैक्टिस करता। उसने लकड़ी से खुद का बल्ला बनाया था और पत्थर को स्टंप की जगह रखता। गाँव के बच्चे उसे चिढ़ाते थे, कहते, “तेरे जैसे गरीब लड़के कभी धोनी या कोहली नहीं बनते।” लेकिन आर्यन चुपचाप अपनी मेहनत में जुटा रहता। एक दिन गाँव में एक क्रिकेट टूर्नामेंट की घोषणा हुई। आर्यन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वह दौड़ता हुआ घर गया और पिता से बोला, “पापा, मैं टूर्नामेंट में खेलना चाहता हूँ।” पिता ने उसकी आँखों की चमक देखी और कहा, “तू खेल, बेटा। हम तेरी फीस का इंतज़ाम करेंगे।” आर्यन ने टूर्नामेंट में हिस्सा लिया। पहले मैच में ही उसने शानदार पारी खेली – 87 रन। लोगों की आँखें खुली की खुली रह गईं। अगले कुछ मैचों में भी वह छाया रहा। फाइनल में आर्यन की ट...