कहानी: दीये की लौ छोटे से गाँव सूरजपुर में एक बालक रहता था – आदित्य। नाम ही उसका पहचान था – सूर्य के समान तेजस्वी। लेकिन उसका जीवन किसी उजाले से भरा नहीं था। गरीबी, अभाव, और संघर्ष उसके बचपन के साथी थे। उसके पिता एक साधारण किसान थे, जो दिन-रात मेहनत करके दो वक्त की रोटी जुटाते थे। गाँव में ना अच्छी पढ़ाई थी, ना किताबें, और ना ही बिजली। पर आदित्य के अंदर एक आग थी – कुछ कर दिखाने की, कुछ बड़ा बनने की। उसकी आँखों में एक सपना था – इंजीनियर बनकर एक दिन अपने गाँव को दुनिया के नक्शे पर लाना। अंधेरे में जलता एक दीया हर रात, जब पूरा गाँव सो जाता, आदित्य एक पुराना मिट्टी का दीया जलाता और पढ़ाई में लग जाता। दीया उसकी दुनिया का इकलौता उजाला था। उसकी माँ कहती, "बेटा, ज्यादा पढ़ेगा तो आंखें कमजोर हो जाएंगी।" लेकिन आदित्य मुस्कराता और कहता, "अंधेरे में लौ और सपनों में विश्वास काफी होता है, माँ।" गाँव के लोग उसका मज़ाक उड़ाते थे। कोई कहता – “गाँव का छोरा इंजीनियर बनेगा? पहले खेत में हल तो चला ले!” लेकिन आदित्य चुपचाप मेहनत करता रहा। उसने मजाकों को आलोचना नहीं, बल्कि प्रेरणा की तर...